Saturday 15/ 11/ 2025 

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उत्तराखण्ड

पर्यावरण संरक्षण में परंपरा और आस्था का महत्व

श्रीनगर गढ़वाल। आज आपको पर्यावरण संरक्षण में परंपरा और आस्था के महत्व के विषय में अवगत करा रहे हैं डॉ.दलीप सिंह बिष्ट सहायक प्राध्यापक राजनीति विज्ञान विभाग राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि रुद्रप्रयाग। आधुनिक समय में वैज्ञानिक और शोधकर्ता हिमालय की प्राकृतिक अनुकूलताओं का अध्ययन कर उससे अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश में लगे हैं,किंतु दुर्भाग्यवश हिमालय की सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि अब दुनिया की सबसे ऊंची चोटी,एवरेस्ट भी मानव गतिविधियों से अछूती नहीं रही। लगातार बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण के कारण हिमालय क्षेत्र में वन सम्पदा तेजी से घट रही है,जिससे पर्यावरण असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो रही है। पिछले कुछ दशकों में बादल फटना,भूस्खलन,भूक्षरण,बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं,जो इस असंतुलन का परिणाम हैं। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों और मनीषियों का वृक्षों व वन्य जीवन के प्रति गहरा लगाव था। वे वृक्षारोपण और उनकी देखभाल को नैतिक कर्तव्य मानते थे। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में भी वृक्षों और वनों के प्रति गहन श्रद्धा का उल्लेख मिलता है। वृक्षों को परिवार के सदस्य के समान सम्मान दिया जाता था। उनका विश्वास था कि जो व्यक्ति वृक्षारोपण करता है,उसकी कीर्ति इस लोक में स्थायी रहती है और परलोक में उसे पुण्य फल प्राप्त होता है। पीपल वृक्ष के संदर्भ में कहा गया है कि जलाशय के समीप पीपल का पौधा लगाने से मनुष्य को सैकड़ों यज्ञों से अधिक फल प्राप्त होता है। पीपल की पूजा से धन,पुत्र,स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पीपल को काटना तो दूर,उस पर हथियार लगाना भी पाप माना गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत है,इसलिए उसका पूजन केवल परंपरा नहीं बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी अत्यंत सार्थक है। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के प्रति आस्था और सम्मान सदैव रहा है। सभी जीव-जंतुओं को किसी न किसी देवी-देवता से जोड़ा गया ताकि कोई भी व्यक्ति उन्हें नुकसान न पहुंचा सके। जैसे-शेर माता दुर्गा की सवारी,चूहा गणेशजी का वाहन,नाग भगवान शिव का आभूषण,गंगा और गाय को माता का दर्जा दिया गया। यह सब प्रकृति के संरक्षण और संतुलन का प्रतीक है। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय प्रदेश में आज भी कई पवित्र वन हैं,जहां पेड़ों को काटना तो दूर,जूते पहनकर प्रवेश करना भी वर्जित है। चिपको आंदोलन ने विश्व का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर खींचा। वहीं मैती आंदोलन ने विवाह जैसे शुभ अवसरों पर वृक्षारोपण को सामाजिक संस्कार बना दिया। इसी प्रकार यादें-एक पर्यावरणीय अभियान के माध्यम से लोगों को अपने प्रियजनों की स्मृति में पीपल लगाने हेतु प्रेरित किया जा रहा है। हमारी परंपरा में जलस्रोतों को भी देवता का रूप माना गया है। उत्तराखंड में नदियों,धाराओं और नौलों की पूजा का यह भाव आज भी जीवित है। जलस्रोतों के समीप जंगल काटना या गंदगी फैलाना वर्जित माना जाता है। पिथौरागढ़ और बड़ियारगढ़ जैसे क्षेत्रों में आज भी वृक्षों को देवता का रूप देकर उनकी पूजा की जाती है। भारतीय संस्कृति,दर्शन और वेदों का गहन अध्ययन बताता है कि हमारे पूर्वजों ने प्रकृति को पूजनीय मानकर पर्यावरण संरक्षण का जो मार्ग अपनाया,वही आज की वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान है। यदि ऋषि-मुनियों ने उस समय प्रकृति को देवत्व से नहीं जोड़ा होता,तो शायद आज पर्यावरणीय संकट और भी गहरा होता। मौसमी परिवर्तन और प्रदूषण उसी संतुलन के विघटन का परिणाम हैं।

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